Shaheed Bhagat Singh ek soch
शहीद भगत सिंह- एक सोच बराबरी की।
हम शहीद भगत सिंह को सिर्फ निडर, जोशिला, हिंसक योद्धे के रूप में स्थापित करते है जब्कि भगत सिंह बहुत सुखम, संवेदनशील मन , कोमलभावों से भरपूर इंकलाबी विचारों वाले व्यक्ति रहे है। इतना ही नही भगतसिंह तो एक लेखक, पत्रकार, विचारक, चिंतक, क्र ांतिकारी रहे है। शहीद-ऐ-आजम की सोच थी कि अजादी के बाद भारत एक ऐसा देश बने जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य की लूट संभव न हो सके। और सिर्फ भारत में ही नही बल्कि पूरी दुनिया में एक देश द्वारा दूसरे का शोषण न किया जा सके। उस बराबरी वाले समाज में सभी मनुष्य के लिए समान अधिकार हो और शोषण व गैरबराबरी करना संभव न हो सके।
भगत सिंह के बारे में आम तथ्य जो हर किसी के मन में शहीद-ए-आजम के प्रति उच्च स्थान स्थापित करता है वह है उसका जवां उम्र में हंसते-हंसते फांसी पर चड़ जाना। भगत सिंह का नायिकत्व सभी को अच्छा लगता है, पर कोई यह नही चाहता कि भगत सिंह जैसा बना जाए या अपने बच्चों को उस जैसे बनने की प्ररेणा दी जाए। ऐसा क्यो? दूसरी ओर भगत सिंह मौत का नही जिंदगी का नायक था। वह जिंदगी के गीत गाने वाला जिंदगी का प्रतीक था। वह शान्ति, आजादी तथा खुशहाली भरी मानवी-जीवन के सपनों के साथ भरा पड़ा था।
वह घर से लोगो को अपने अधिकारों व जिम्मेदारियों के प्रति सचेत व जागरूक करने के लिए चला था। वे तो एक स्वंतत्र, अंतराष्ट्रीय सोच, उस समय की राजनितिक, समाजिक, आर्थिक हालतों को समझने व समझाने के लिए निकला था, न की मरने के लिए।
न सांडर्स को मारना और न ही ऐसैंबली में बम फेंक कर शहीद की पदवी प्राप्त करना भगत सिंह का मकसद था। हां शहीदी का जरूरी मनोरथ इंकलाबी चेतना को भारत के हर कौने-कौने में विशेष कर नौजवानो को तक पहुंचाना जरूर था।
यहां 23 मार्च का संबंध शहीद-ए-आजम की शहीदी के साथ है और 27 सितम्बर का दिन उनके जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है. वही बाकी के 363 दिनों का संबंध उनके उच्च आदर्शो को समर्पित उनके जीवन की सरगर्मीयों के साथ होना चाहिए। उनकी मौत का फैसला ब्रिटेन सम्राज्य की नौकरशाही ने किया था। गोरतलब है कि भगतसिंह के केस को लेकर पाकिस्तान के वकील संघर्षरत है और पिछले दिनों उसने ये मांग कि थी कि भगत सिंह को फांसी देने के लिए ब्रिटीश सरकार को माफी मांगनी चाहिए।
भगत सिंह पढ़ाई से भगोड़ा हो कर इंकलाबी नही बना था।
1921 के असहयोग अंदोलन की लहर के दौरान विधार्थीयों को कहा गया था कि वह अग्रजो की नौकरी वाली शिक्षा को त्याग दे और स्कूल छोड़ दें। दसवी कक्षा में पढ़ते हुए भगत सिंह ने स्कूल छोड़ दिया। सन 1922 में देेंशभगतो ने लाहौर नेशनल कालेज खोल कर नौजवानो के लिए देशज शिक्षा देने का प्रबंध किया। भगत सिंह दसवी भी कालेज में दाखिला लेना चाहते थे लेकिन दसवीं उर्तीण न होने के कारण उन्हें एक टेस्ट से गुजारना था। भगत सिंह ने कडी़ मेहनत की कालेज में दाखिला लिया। यहां पर न सिर्फ वह राजनिति, सहित्य, भाषा, इतिहास, दर्शन, समाज शास्त्र का छात्र बने ब्लकि एक खोजार्थी भी बने। इतिहास विज्ञानी बताते है कि कालेज के दिनों में वे अपने विचारों मगन, देश और समाज की परिस्थितियों के बारे में जागरूक व सचेत रहना वाला व्यक्ति था।
आगे 1923-24 के बीच भगतसिंह घर छोड़ कर कानपुर आ गए और यहां 6 महीने गणेश शंकर विद्यार्थी की ’अर्जुन’ अखबार में बिना वेतन के काम किया। यहीं पर उनकी मुलाकात बीके दत, चंद्रशेखर आजाद, जयदेव कपुर, राम प्रसाद बिस्मिल, शिव वर्मा आादि इंकलाबियों के साथ हुई। और उनके जीवन का इंकलाबी सफर आगे बढ़ा।
एक बार पार्टी के लिए किसी गांव मे डकैती के लिए जाना पड़ा। इस घटना ने भगत सिंह के मन को झकझोर दिया। हताश हो कर कहने लगे, ’ क्यों भारत को आजाद करवाने की तमन्ना लेकर हम इस तरह के कामों मे भटक रहे है। इस तरह जबरदस्ती हथिायारों के जोर पर पार्टी के लिए पैसे इक्कठे करना हमें आजाद भारत की क्या तस्वीर देगा?’’ और फिर इस सवाल के जवाब की खोज शुरू हुई। इसी सवाल की तलाश में रूस, आयरलैंड, इटली, आादि देशों में चल रही संघर्ष की कहानीयों को भगत सिंह ने जांचा-परखना शुरू किया।
कितबों से थी दोस्ती
पढऩे का जनून दिवानगी की हद तक था। कभी कभी तो सडक़ पर चलते हुए भी पड़ते थे। फांसी वाले दिन भी वे लेनिन को पढ़ रहे थे और फांसी के लिए जाने के वक्त भी किताब उनके हाथ में थी। कानपुर से घर लौटें तो पजामें की जगह लुंगी ने ले ली थी। पजामें का आसन फटा तो पजामें की टांगे काट कर आस्तीन पर लगा दी लेकिन एक किताब तब भी बची थी। 23 साल की उम्र में सैकड़ो किताबे पढ़ ली थी। किताबो से नोटस लेना, लाईन पर निशान लगाना, मार्जन में लिखना। उनकी जेल डायरी से ही तो पता चलता है कि भगत सिंह व उनके विचारों को कौन-सी सोच ढाल रही थी। उस समय जब कई विद्ववान खुद को संाप्रदायिक राजनिति की ओर लिये जा रहे थे तो ये नौजवान नई राहों की तलाश करते हुए, धर्म की राजनिति के खिलाफ अपनी सोच को तेजधार पहना रहे थे।
यथार्थवाद को बनाया अधार
भगत सिंह ने अपने 27 दिसंबर 1931 में स्वतंत्रता सेनानी की नास्तीक होने की टिपनी पर ’मैं नास्ति क्यों हूं’ विषय से एक लेख लिखा। जिसमें उन्होंने साफ ब्यान किया कि- ’अध्ययन, यही है एक शब्द है जो मेरे कानों मे गूंजता रहता था। योगय बनने के लिये अध्ययन करो अपने मत के पक्ष में अध्ययन करने के लिए सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढऩा शुरू कर दिया इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास में अद्भुत रूप से बदलाव आया। और फिर मैंने तय किया न और अधिक रहस्य, न और अधिक अंधविश्वास और फिर यथार्थवाद ही हमारा अधार बना। ’
इस तरह भगत सिंह ने यथार्थवादी इंकलाब के रास्ते का चयन किया। अपने- आप को बंब, पिस्तौल और गोलियों से लैस करने की जगह इंकलाबी विचार व शोषणरहित बराबरी वाले समाज के संकल्प के साथ लैस किया व नारा दिया –
’’ इंकालाब की तलवार विचारों की सान पर ही तेज होती है’’।
1921 के असहयोग अंदोलन की लहर के दौरान विधार्थीयों को कहा गया था कि वह अग्रजो की नौकरी वाली शिक्षा को त्याग दे और स्कूल छोड़ दें। दसवी कक्षा में पढ़ते हुए भगत सिंह ने स्कूल छोड़ दिया। सन 1922 में देेंशभगतो ने लाहौर नेशनल कालेज खोल कर नौजवानो के लिए देशज शिक्षा देने का प्रबंध किया। भगत सिंह दसवी भी कालेज में दाखिला लेना चाहते थे लेकिन दसवीं उर्तीण न होने के कारण उन्हें एक टेस्ट से गुजारना था। भगत सिंह ने कडी़ मेहनत की कालेज में दाखिला लिया। यहां पर न सिर्फ वह राजनिति, सहित्य, भाषा, इतिहास, दर्शन, समाज शास्त्र का छात्र बने ब्लकि एक खोजार्थी भी बने। इतिहास विज्ञानी बताते है कि कालेज के दिनों में वे अपने विचारों मगन, देश और समाज की परिस्थितियों के बारे में जागरूक व सचेत रहना वाला व्यक्ति था।
आगे 1923-24 के बीच भगतसिंह घर छोड़ कर कानपुर आ गए और यहां 6 महीने गणेश शंकर विद्यार्थी की ’अर्जुन’ अखबार में बिना वेतन के काम किया। यहीं पर उनकी मुलाकात बीके दत, चंद्रशेखर आजाद, जयदेव कपुर, राम प्रसाद बिस्मिल, शिव वर्मा आादि इंकलाबियों के साथ हुई। और उनके जीवन का इंकलाबी सफर आगे बढ़ा।
एक बार पार्टी के लिए किसी गांव मे डकैती के लिए जाना पड़ा। इस घटना ने भगत सिंह के मन को झकझोर दिया। हताश हो कर कहने लगे, ’ क्यों भारत को आजाद करवाने की तमन्ना लेकर हम इस तरह के कामों मे भटक रहे है। इस तरह जबरदस्ती हथिायारों के जोर पर पार्टी के लिए पैसे इक्कठे करना हमें आजाद भारत की क्या तस्वीर देगा?’’ और फिर इस सवाल के जवाब की खोज शुरू हुई। इसी सवाल की तलाश में रूस, आयरलैंड, इटली, आादि देशों में चल रही संघर्ष की कहानीयों को भगत सिंह ने जांचा-परखना शुरू किया।
कितबों से थी दोस्ती
पढऩे का जनून दिवानगी की हद तक था। कभी कभी तो सडक़ पर चलते हुए भी पड़ते थे। फांसी वाले दिन भी वे लेनिन को पढ़ रहे थे और फांसी के लिए जाने के वक्त भी किताब उनके हाथ में थी। कानपुर से घर लौटें तो पजामें की जगह लुंगी ने ले ली थी। पजामें का आसन फटा तो पजामें की टांगे काट कर आस्तीन पर लगा दी लेकिन एक किताब तब भी बची थी। 23 साल की उम्र में सैकड़ो किताबे पढ़ ली थी। किताबो से नोटस लेना, लाईन पर निशान लगाना, मार्जन में लिखना। उनकी जेल डायरी से ही तो पता चलता है कि भगत सिंह व उनके विचारों को कौन-सी सोच ढाल रही थी। उस समय जब कई विद्ववान खुद को संाप्रदायिक राजनिति की ओर लिये जा रहे थे तो ये नौजवान नई राहों की तलाश करते हुए, धर्म की राजनिति के खिलाफ अपनी सोच को तेजधार पहना रहे थे।
यथार्थवाद को बनाया अधार
भगत सिंह ने अपने 27 दिसंबर 1931 में स्वतंत्रता सेनानी की नास्तीक होने की टिपनी पर ’मैं नास्ति क्यों हूं’ विषय से एक लेख लिखा। जिसमें उन्होंने साफ ब्यान किया कि- ’अध्ययन, यही है एक शब्द है जो मेरे कानों मे गूंजता रहता था। योगय बनने के लिये अध्ययन करो अपने मत के पक्ष में अध्ययन करने के लिए सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढऩा शुरू कर दिया इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास में अद्भुत रूप से बदलाव आया। और फिर मैंने तय किया न और अधिक रहस्य, न और अधिक अंधविश्वास और फिर यथार्थवाद ही हमारा अधार बना। ’
इस तरह भगत सिंह ने यथार्थवादी इंकलाब के रास्ते का चयन किया। अपने- आप को बंब, पिस्तौल और गोलियों से लैस करने की जगह इंकलाबी विचार व शोषणरहित बराबरी वाले समाज के संकल्प के साथ लैस किया व नारा दिया –
’’ इंकालाब की तलवार विचारों की सान पर ही तेज होती है’’।
भगत सिंह – मै एक इंसान हूं, इससे ज्यादा कुछ भी नही
पंजाबी भगत सिंह के पंजाबी जट सिख होनेे का गर्व करते हो। लेकिन भगत सिंह को पंजाबीयों के बारें में कोई भ्रम नही था। उन्होंने कभी भी पंजाबी, जट या सिख होने की कभी शान नही दिखाई। इसके उलटे उन्होंने अपने लेखों में पंजाबियों को बाकि देशवासियों के मुकाबले राजनितिक मसले में पिछड़ा माना। 27 फरवरी 1926 को होली वाले दिन 6 बब्बर आकाली- किशन सिंह गडऱज, संता सिंह, दलीप सिंह, करम सिंह, नंद सिंह, और धर्म सिंह को फांसी पर लटका दिया गया। इन बहादुर वीरों के जीवन परिचय के बारें में भगत सिंह ने 15 मार्च 1926 को ’प्रताप’ अखबार में लेख लिखा । उसमें भगत सिंह लिखते है कि जिस दिन बब्बर अकाली योद्धायों को फांसी दी गई और फिर चुपचाप शमशान घाट में उनका अंतिम संस्कार किया गया। उस दिन पंजाब के लोग पूरी बेशर्मी के साथ एक दूसरे पर रंग फैंक कर होली मना रहे थे। इससे साफ पता चलता है कि चाहें हम भगत सिंह को नही जानते है पर वो हमारी समझ को अच्छी तरह जान चुके थे। उन्होंने अपनी लेखनी वे लिखा है कि î मैं एक इंसान हूं और इससे ज्यादा कुछ भी नही। और जो कुछ भी इंसानियत से जुड़ा हुआ है, मुझे उस उसे मतलब है। े
लोगों के साथ परस्पर मिलजुल कर रहना
भगत सिंह अपनी किसी भी ज्ञान के कारण लोगों से अलग होकर नही रहते थे इसके उलट वो लोगों के साथ परस्पर मिलजुल कर, लोगों के संघर्ष के साथ जुड़ा हुआ था। वे लोगों के दुख-दर्द को समझते थे। सन 1924 में ग्ुारूद्वारा सुधार लहर के दौरान लोग काफिले बना जेतु (जगह का नाम) की तरफ जा रहे थे। उस समय अंग्रजो ने ऐलान किया था कि कोई भी इन काफिलों में शमिल लोगों को पानी भी न पिलाएं। ऐसे में भगत सिंह ने अपनेे गांव के लोगों को संगठीत कर लंगर तैयार करवाकर गन्ने के खेतों में रखवा दिया क्योंकि पुलिस ने नाकाबंदी कर रखी थी। और जेतु जाने वाले काफिलों को लंगर छकवाया व लोगों को बहुत प्रभावशाली स्पीच भी दी। इसके बदले भगत सिंह के फिर वारंट निकले और वे कानपुर चले गए।
भगत सिंह- एक शिक्षक, एक विचारक
वहां गणेश शंकर विद्यार्थी की सहायता से अलीगढ़ जिले के मादीपुर मे नेशनल स्कूल में अध्यापन कार्य किया। और जब कानपुर में भयानक बाढ़ आई तो भगत सिंह ने आगे बढ़ कर बाढ़ पिडि़तों की सेवा की। भगत सिंह जात-पात अधारित समाजिक व्यवस्था के खिलाफ थे। उन्होंने अपने लेख ’भारत में अछूत की समस्या’ में लिखा है कि जब तक हम कुछ लोगों को अछूत कहते है और उन्हें समाजिक तौर पर पिछड़ा ही रखते है तो क्या हमें अंगे्रजो से अपनी बराबरी व आजादी की मांग करने का नैतिक अधिकार है?
भगत सिंह कोई खुशक शखसियत वाला इंसान नही थे। वो तो मानवी संवेदना से भरे पड़े थे। उन्होंने फांसी से 20 दिन पहले अपने भाई कुलतार सिंह को खत लिखा- ’ हिम्मत से रहो, सेहत का खयाल रखना व आहिस्ता-आहिस्ता मेहनत के साथ पढ़ते जाना अगर कोई काम सिखो तो बेहतर होगा। पर सब कुछ पिता जी की मर्जी के साथ करना। जहां तक हो सके प्यार के साथ सब लोग गुजारा करना। इससे ज्यादा क्या कहुं। जानता हुं कि गम का समुंदर तुम्हारे भीतर समाया हुआ है। इसी तरह का खत उन्होंने अपने दूसरे भाई कुलतार सिंह को लिखा था-’आज तुम्हारी आंखो में बहुत दर्द था, तम्हारे आंसू मुझसे सहन नही होते’।
जब जेल में स्वतंत्रता सेनानी रणधीर सिंह ने भगत सिंह को ये कह कर मिलने से मना कर दिया कि उन्होंने केश कत्ल करवा दिये है तो भगत सिंह का जबाव तर्कशीलता से लबरेज था- मैं सिखी की अंग-अंग कटवाने की रवायित का कायल हुं। अभी तो मैंने एक अंग कटवाया है, वो भी पेट के लिये नही, देश के लिये। जल्द ही गर्दन भी कटावाउंगा। जिसे भगत सिंह निभाया भी।
भगत सिंह को जानने के लिये उनके लेखों और उनकी 404 पन्नों की जेल डायरी को पढऩा जरूरी है तभी हम जान सकते है कि क्या थे उनके सपनें?, क्या थी उनकी सोच? क्या थे उनका आदर्श? और क्या थे उनके असूल?
हमनें भगत सिंह के विशलेषन अध्ययन, सिद्धांतक समझ, समाजिक कार्यशीलता, तर्कशीलता और इंकलाबी विचारों को एक तरफ रख। सिर्फ दो खड़ी मूछों को भगत सिंह जान लिया है। जो कि उनके साथ अन्यान है। कुछ कलाकारों ने तो उसकी मूछों को और अधिक तिखी कर दिया है जिससे उनकी उम्र ही असल से दुगनी कर दी गई है। जब्कि हम खुद जानते है कि 23 साल कि उम्र में मूछें कच्ची ही होती है। कालेज के दिनों से ही भगत सिंह तो एक संवेदनशील और इंकलाबी विचारों में मगन रहने वाला युवक था न कि मूछें खड़ी करना उस समेत दूसरे इंकलाबीयों का शोक था। वो तो इंकलाब ही ओड़ते थे। इंकलाब ही गाते थे। इंकलाब ही जीते थे। शहीद भगत सिंह और उनके साथी मौत के नही जिंदगी के नायक थे। दोस्तों भगत सिंह की सोच को आगे बढ़ाने के लिए युवाओं को ही आगे आना होगा। युवाओं का भगत सिंह के सोच का आगे ले जाने का आह््वान करते है। ताकि भारत ही नही पूरी दुनिया राजनितिक, समाजिक व आर्थिक बरबारी कायम की जा सके। भगत सिंह के अंतिम शब्दो के साथ उनकी इंकलाबी व बराबरी वाले समाज के निमार्ण करने की सोच को लाल, नीला, हरा, बसंती, तीरंगा, सत्तरंगी स्लाम।
’हवा में रहेगी मेरे खयालो की बिजली,
ये जिस्म मुषतखे खाक है फानी रहे न रहे’
इंकलाब जिंदाबाद।
ये जिस्म मुषतखे खाक है फानी रहे न रहे’
इंकलाब जिंदाबाद।
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