आपकी सहमति को आप खुद तय कर रहे है या कोई और? -1

एक काल्पनिक दुशमन तैयार कर, एक खास दिशा में लोगों की सहमति का निमार्ण किया जाता है। फि उनमें तनाव, नफरत और उन्माद भरा जाता है।

 29 जून (गुलशन उधम):
करीब 1988 में अमेरिका के प्रख्यात मीडिया क्रिटिक नोम चोमस्की व ऐडवर्ड हरमन ने एक किताब पब्लिश करी थी- मेनफेक्चरिंग कंसेन्ट  सरल शब्दों में समझे तो  सहमति का निमार्ण  किताब के टाइटल से ही पता चलता है कि कि ताब किस विषय पर लिखी गई है। इसमें बताया कि किस तरह से एक विशेष तौर की खबरों का जाल बुनकर एक चुनी हुई दिशा की ओर आमजन की सहमति का निमार्ण किया जाता है। किताब में बताया है कि मौजूदा समय में आमजन तक खबरे पांच फिल्टर से होकर पुहंचती है। जो कि खास तरह की सहमति बनाने का कार्य करती है।
पांचों फिल्टर बहुत ही दिलचस्प है।
जिनमें शामिल है-
1. Size & Ownership =  आकार व स्वामित्व
2. funding= वित्त पोषण
3. Source= स्त्रोत
4. Flaks=  खुद के नुक्सान वाली अलोचना से बचना
5. Imaginary enemy= काल्पनिक दुशमन
 थोड़ा सा दिमाग दौड़ाऐंगे तो आप पायेंगे की मौजूदा समय में  ज्यादातर मीडिया हाउस ऐसे ही काम रहे है। इन पांचों फिल्टर पर हम बारी-बारी बात करेंगे।  शुरूआत हम पांचवे फिल्टर से करते है जो कि है इमेजनरी एैनेमी (imaginary enemy) यानी काल्पनिक दुशमन बनाना और फिर एक खास दिशा की तरफ लोगों की सहमति का निमार्ण किया जाता है जिससे लोगों में तनाव, नफरत और उन्माद भरा जाता है। ये किताब अमेरिका को ध्यान में रख कर लिखी गई है लेकिन आप पायेंगे की भारत का मीडिया भी इसी राह पर आगे बढ़ रहा है।
सोशल मीडिया के आने के बाद स्थिति और भी अधिक गंभीर हो गई है। शुरू में जब सोशल मीडिया का परिचय हुआ तो बहुत ही लोकतंात्रिक और क्र ांतिकारी प्लेटफार्म महसूस हुआ था। आप भी खुद का अनुभव का विशलेषण करिएगा। लेकिन धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि ये भी मार्केट का ही हिस्सा है और मार्केट को आगे बढ़ाने के लिए ही इस्तेमाल में लाया जा रहा है। हाल ही में आए कैंब्रिज एनलिटिका स्केंडल से फे सबुक पर डाटा लीक होने का मामला दुनिया भर में गर्माया था। लेकिन ये सच है कि अन्य मीडिया प्लेटफार्म के मुकाबले इसने उपोभोगता (consumer) को अधिक अधिकार दिए है और उसे प्रोस्यिूमर (Proseumer= Producer as wall consumer) बना दिया है।
लेकिन जैसे उपभोगता ने अपने इन अधिकारों का इस्तेमाल करना शुरू किया और अपनी समस्याएं और मांगों को सोशल मीडिया से उजागर करना शुरू किया। वैसे ही ट्रोर्लस (ञ्जह्म्शद्यद्यह्य) किरदार सामने आने लगा। अब सोशल मीडिया पर अलग मत रखने वालों पर निशाना साधा जाने लगा। समय बीतने के साथ राजनीति पार्टियों ने भी आईटी सैल तैयार कर लिए है। जहां से सोशल मीडिया को मैनेज करने की नितियां निर्धारित की जाने लगी है। और एक खास तरह की लोगों की सहमति को बनाए जाने का काम शुरू कर दिया गया।
अब एक नजर खुद के सोशल नेटवर्क पर दौड़ाए । क्या आप के व्हटसऐप व सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर इस तरह के संदेश मिल रहे है जिसे हर समस्या की जड़ का कारण एक विशेष क्म्युनिटी से जुड़े लोग या एक विशेष भाषा बोलने वाले या एक विशेष क्षेत्र के  या फिर एक विशेष विचाराधारा को मानने वाले लोगों को बताया जा रहा है।
किसी भी समस्या का हल विज्ञानिक व लोकतंत्रिक तरीके से खोजने के बजाए सोशल साईटस पर काल्पनिक दुशमन को ही समस्या के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। या फिर किसी एक गुनाह के लिए पूरे समुदाए को ही उसका दोषी बता दिया जाता है। जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 ए मेंं हर भारतीय का ये मूल कर्तव्य बताया गया है कि वे देश में मानववाद, विज्ञानकि चिंतन, खोज व सुधार की भावना को विस्तार करे। लेकिन मीडिया व सोशल मीडिया तो इसके विपरित ही कार्य कर रहा है। जिस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।
शेष फिर ...
आखिर में, किताब और इससे जुड़ी जानकारी इंटरनेट और आपकी करीबी लाईब्रेरी में आसानी से मिल जाएगी। सारी कोशिश इसलिए कि जिज्ञासा और सच की खोज में आगे बढ़ा जा सके।
 लेख में लिखे गए कुछ शब्द को समझने के लिए यहां देखे-
Manfacture  = उत्पादन= निमार्ण = बनाना ।
consent = âãU×çÌ
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