डराने-धमकाने की संस्कृ ति की लपटों कौन दे रहा है हवा


गुलशन उधम।
’’ *एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में मरा हुआ नागरिक पैदा करता है* । इसलिए डरे नही निभिक्र्ता से पत्रकारिता करे।’’ एक कार्यक्रम के दौरान एनडीटीवी में कार्यरत पत्रकार रविश कुमार ने ये शब्द कहे थे। जिनसे जाहिर होता है कि पत्रकारों को निष्पक्ष होकर अपनी रिपोर्ट को पेश करना चाहिए जो स्वस्थ नागरिक और स्वस्थ लोकतंत्र दोनो के लिए जरूरी है।
लेकिन हालात तो ऐसे जटिल हुए है। कि बीते दिनों खुद पत्रकार रविश कुमार को ही डराने-धमकाने का मामला पब्लिक डोमेन में लाना पड़ा। हालांकि इससे पहले भी डराने-धमकाने व ट्रौल करने के मामलें से जूझते रहे है। लेकिन इस बार उनके भी सबर का बांध लडख़ड़ा गया और उन्हें ये मामला आमजन के समाने लाना पड़ा। इसी दौरान पत्रकार राणा आयुब को धमकियां और ट्रौल किए जाने का मामलें भी खबरों और सोशल मीडिया पर छाया रहा। जिस मामले पर यूएन ने हस्तक्षेप करते हुए राणा आयुब के लिए भारत सरकार को सुरक्षा देने की मांग की है।
ताजा मामला पत्रकार बरखा दत्त को धमकियां मिलने का सामने आया है। जिसके बारे में बरखा दत्त ने अपने पेज पर साझा किया है। और स्वाल किया है क्या ये मेरा ही देश है? अगर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बनाए रखने वाले पत्रकार ही सुरक्षित नही होंगे तो ऐसे में देश के क्या हालत बनेंगे? ये चिंतनीय विषय है। वहीं बीते वर्ष देश में अलग-अलग हिस्सों में पत्रकारों पर हमले बढ़े है।
बीतें दिनों वल्र्ड प्रेस फ्रिडम इंडेक्स 2018 के 180 देशों के सर्वे मेें भारत का स्थान का 136 से लुढक़ कर 138 पहुंच गया है। पत्रकारों के लिए देश में कार्य करना दिन ब दिन कठिन होता जा रहा है।
इसके बाद कोबरा पोस्ट 136 पार्ट 2 के स्टिंग ने कोर्ट से पब्लिश न करने की हिम्मत दिखाते हुए भारत के मीडिया की कार्यप्रणाली के पर्दे के पीछे की तस्वीर को सार्वजानिक कर दिया है जो कई लोगों की आंख में खटक रही है। बरहाल पत्रकारिता का इतिहास में सपष्ट है कि पत्राकरिता अपने शुरूआती दौर से ही नियमों को ताक पर रख कर ही सचाई को जनहित में लाने के लिए नए रास्तों का निमार्ण करती रही है।
इन सब घटनाओं में जो सबसे अधिक चिंतनीजनक विषय हैै वो इन पोस्टों पर किए गए क मैंटस है। इसे समझने के लिए यहां पत्रकार बर्खा दत्त के स्टेटस पर किए गए कमैंटस की स्क्रीन शाट साझा किए जा रहे है। जिन्हें पढ़ कर भारतीय नागरिकों की बदल रही मनोदशा का पता चलता है। ये सिर्फ राजनितिक पार्टी की आईटी सैल की सेना हो तो बात समझ में आती है लेकिन ज्यादातर लोग उसका हिस्सा नही है। इन्हें पढ़ कर कमैंट करने वालों की बीमार मानसिकता का पता चलता है। ज्यादतर कमैंट कई सारे विषयों की एक साथ खिचड़ी पका रहे है। और अपना व्हटसएैप युनिर्वसिटी का ज्ञान उडै़लते हुए नजर आ रहे है। क्या ये भारतीयों का बदलता चेहरा है। यहां पर अलग मत रखने वालों को जीने का अधिकार नही दिया जाएाग। एक ही रंग की देश बनाने का खुमार इन लोगों पर क्यों चढ़ा हुआ है। इस डराने-धमकाने की संस्कृति की लपटों को हवा कौन दे रहा है। कौन चाहता है कि पत्रकार बोले तो सिर्फ उनके पक्ष में बोले, लिखे तो सिर्फ उनके पक्ष में लिखे। हकूमत को इतना डर क्यों हो गया है पत्रकार से।
सरकार को पत्रकारों द्वारा उठाए सुरक्षा के मसले पर ध्यान देना चाहिए। और साथ ही जो टूथलैस टाइगर के नाम जानी जाने वाली विभिन्न मीडिया संस्थान है उन्हें भी इस मसले पर अपनी चुप्पी तोडऩी चाहिए। माना उनके पास दांत लेकिन क्या जुबां तो है।
शेष फिर…

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